इन दोनों का एक ही उद्येश्य है समाज में अपराध को कम करना.
आइये जानते हैं कि इन दोनों शब्दों में क्या अंतर है.
किसी आरोपी व्यक्ति को
पुलिस कस्टडी और ज्यूडिशियल कस्टडी में भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता (CRPC) के नियमों के हिसाब से
रखा जाता है. पुलिस कस्टडी तथा ज्यूडिशियल कस्टडी दोनों में संदिग्ध को कानून की
हिरासत में रखा जाता है. दोनों प्रकार की कस्टडी का उद्येश्य व्यक्ति को अपराध
करने से रोकना होता है.
जब भी पुलिस किसी व्यक्ति को हिरासत में लेती है तो वह अपने जांच को आगे बढ़ाने के लिए CrPC की धारा 167 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट से 15 दिन तक के लिए हिरासत में रखने का समय मांग सकती है. एक न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी भी व्यक्ति को 15 दिनों तक किसी भी तरह के हिरासत में भेज सकता है.
जब भी पुलिस किसी व्यक्ति को हिरासत में लेती है तो वह अपने जांच को आगे बढ़ाने के लिए CrPC की धारा 167 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट से 15 दिन तक के लिए हिरासत में रखने का समय मांग सकती है. एक न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी भी व्यक्ति को 15 दिनों तक किसी भी तरह के हिरासत में भेज सकता है.
लेकिन कुछ ऐसे कानून
होते हैं जिनके तहत पुलिस किसी आरोपी को 30 दिनों तक भी पुलिस
कस्टडी में रख सकती है. जैसे महाराष्ट्र
संगठित अपराध नियंत्रण
अधिनियम 1999 (मकोका) के तहत पुलिस
कस्टडी को 30 दिनों तक के लिए
बढ़ाया जा सकता है.
हालाँकि ऐसे कई
प्रावधान हैं जो अवैध गिरफ्तारी के खिलाफ
सुरक्षा उपलब्ध करते
हैं. यदि किसी की गिरफ़्तारी दण्ड प्रक्रिया संहिता के
सेक्शन 46 के
अनुसार नहीं हुई है तो उसकी गिरफ़्तारी वैध नहीं मानी जाती है.
#2
हाइलाइट्स:-
- पुलिस कस्टडी में पुलिस हवालात जबकि जुडिशल
कस्टडी में जेल में रखा जाता है.
- पुलिस कस्टडी 24 घंटे से ज्यादा की नहीं हो
सकती जबकि जुडिशल कस्टडी के लिए अलग नियम.
- चार्जशीट दाखिल होने के बाद पुलिस कस्टडी में
नहीं रखा जा सकता है.
- कस्टडी और अरेस्ट वैसे कस्टडी यानी किसी को
हिरासत में लेना और अरेस्ट यानी गिरफ्तार करना सुनने में एक जैसा लगता है।
लेकिन दोनों अलग है। गिरफ्तार करने का मतलब है किसी व्यक्ति को पुलिस हिरासत
में लेना जबकि हिरासत का मतलब किसी व्यक्ति पर नजर रखना या उसकी गतिविधियों
पर आंशिक या पूरी तौर पर पाबंदी लगा देना। लेकिन यह सही
है कि हर गिरफ्तारी में हिरासत होती है लेकिन हर हिरासत में गिरफ्तारी नहीं
होती है। आमतौर पर पुलिस की अपराध की छानबीन, किसी अपराध को होने से रोकने
और किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को होने वाले नुकसान से बचाने के लिए किसी
इंसान को गिरफ्तार करती है।
- गिरफ्तार करने से एक व्यक्ति की निजी आजादी खत्म
हो जाती है। वैसे कानून में अवैध गिरफ्तारी से एक व्यक्ति को बचाने के लिए कई
प्रावधान किए गए हैं।
- पुलिस हिरासत (पुलिस कस्टडी) और न्यायिका हिरासत
(जुडिशल कस्टडी) में फर्क-------
पुलिस कस्टडी में
आरोपी को पुलिस लॉकअप में रखा जाता है जबकि जुडिशल कस्टडी में कोर्ट की कस्टडी
यानी जेल में रखा जाता है। किसी संज्ञेय अपराध के लिए FIR
दर्ज करने के बाद पुलिस किसी आरोपी को गिरफ्तार कर सकती है। गिरफ्तारी इस उद्देश्य
से किया जाता है कि साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ न हो या गवाहों को धमकाया नहीं जाए।
#3
पुलिस कस्टडी-----
जब पुलिस को किसी
व्यक्ति के बारे में सूचना या शिकायत / रिपोर्ट प्राप्त होती है तो सम्बंधित पुलिस
अधिकारी अपराध में शामिल संदिग्ध को गिरफ्तार कर लेती है जिससे कि उस व्यक्ति को
आगे भी अपराध करने से रोका जा सके. जब इस प्रकार का संदिग्ध व्यक्ति पुलिस
हवालात में बंद कर दिया जाता है तो उसे पुलिस कस्टडी कहा जाता है. इस हिरासत के दौरान, मामले के प्रभारी
पुलिस अधिकारी, संदिग्ध
से पूछताछ कर सकते हैं. ध्यान रहे कि संदिग्ध व्यक्ति की
हिरासत अवधि 24 घंटों
से अधिक की नहीं होनी चाहिए. इस मामले में शामिल
पुलिस अधिकारी का यह दायित्व होता है कि वह संदिग्ध व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर उचित
न्यायाधीश के समक्ष पेश करे और उसके खिलाफ सबूत पेश करे. यहाँ पर यह बताना जरूरी
है कि इस 24 घंटे के समय में उस
समय को नहीं जोड़ा जाता है जो कि संदिग्ध को पुलिस स्टेशन से कोर्ट लाने में खर्च
होता है.
#4
ज्यूडिशियल कस्टडी का
अर्थ क्या है?
ज्यूडिशियल या न्यायिक
कस्टडी का मतलब है कि व्यक्ति को संबंधित मजिस्ट्रेट के आदेश पर जेल में रखा
जायेगा. ध्यान रहे कि पुलिस कस्टडी में व्यक्ति को जेल में नहीं रखा जाता है. आपने
सुना होगा कि कोर्ट ने आरोपी व्यक्ति को 14 दिन की ज्यूडिशियल
हिरासत में भेज दिया है.
#5
आइये अब पुलिस कस्टडी और ज्यूडिशियल कस्टडी के बीच अंतर समझते हैं;
1. पुलिस कस्टडी में
व्यक्ति को "पुलिस थाने" में पुलिस द्वारा की
गयी कार्यवाही के कारण रखा जाता है जबकि ज्यूडिशियल कस्टडी में
आरोपी को "जेल" में रखा जाता है.
2. पुलिस कस्टडी तब शुरू
होती है जब पुलिस अधिकारी किसी संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार कर लेती है जबकि
ज्यूडिशियल कस्टडी तब शुरू होती है जब न्यायाधीश आरोपी को पुलिस कस्टडी से जेल भेज
देता है.
3. पुलिस कस्टडी में रखे गए आरोपी व्यक्ति को 24 घंटे के अन्दर किसी मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना पड़ता है लेकिन ज्यूडिशियल कस्टडी में रखे गए व्यक्ति को तब तक जेल में रखा जाता है जब तक कि उसके खिलाफ मामला अदालत में चलता है या जब तक अदालत उसे जमानत पर रिहा नहीं कर देती है.
4. पुलिस कस्टडी में पुलिस आरोपी व्यक्ति को मार पीट सकती है ताकि वह अपना अपराध कबूल कर ले. लेकिन यदि कोई व्यक्ति सीधे कोर्ट में हाजिर हो जाता है तो उसे सीधे जेल भेज दिया जाता है और वह पुलिस की पिटाई से बच जाता है. यदि पुलिस को किसी प्रकार की पूछताछ करनी हो तो सबसे पहले न्यायाधीश से आज्ञा लेनी पड़ती है. हालाँकि उसके जेल में रहते हुए भी पुलिस उसके खिलाफ सबूत जुटाती रहती है ताकि सबूतों को जज के सामने पेश करके आरोपी को अपराधी साबित करके ज्यादा से ज्यादा सजा दिलाई जाए.
5. पुलिस कस्टडी की अधिकतम अवधि 24 घंटे की होती है जबकि ज्यूडिशियल कस्टडी में ऐसी कोई अवधि नहीं होती है.
3. पुलिस कस्टडी में रखे गए आरोपी व्यक्ति को 24 घंटे के अन्दर किसी मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना पड़ता है लेकिन ज्यूडिशियल कस्टडी में रखे गए व्यक्ति को तब तक जेल में रखा जाता है जब तक कि उसके खिलाफ मामला अदालत में चलता है या जब तक अदालत उसे जमानत पर रिहा नहीं कर देती है.
4. पुलिस कस्टडी में पुलिस आरोपी व्यक्ति को मार पीट सकती है ताकि वह अपना अपराध कबूल कर ले. लेकिन यदि कोई व्यक्ति सीधे कोर्ट में हाजिर हो जाता है तो उसे सीधे जेल भेज दिया जाता है और वह पुलिस की पिटाई से बच जाता है. यदि पुलिस को किसी प्रकार की पूछताछ करनी हो तो सबसे पहले न्यायाधीश से आज्ञा लेनी पड़ती है. हालाँकि उसके जेल में रहते हुए भी पुलिस उसके खिलाफ सबूत जुटाती रहती है ताकि सबूतों को जज के सामने पेश करके आरोपी को अपराधी साबित करके ज्यादा से ज्यादा सजा दिलाई जाए.
5. पुलिस कस्टडी की अधिकतम अवधि 24 घंटे की होती है जबकि ज्यूडिशियल कस्टडी में ऐसी कोई अवधि नहीं होती है.
6. जो जमानत पर रिहा
अपराधी होते हैं वैसे मामलों में आरोपी को पुलिस कस्टडी में नहीं भेजा जाता और
पुलिस कस्टडी तब तक ही रहती है जब तक कि पुलिस द्वारा चार्जशीट दाखिल नहीं की जाती
है. एक बार चार्जशीट दाखिल हो जाने पर पुलिस के पास आरोपी को हिरासत में रखने का
कोई कारण नहीं बचता है.
7. पुलिस कस्टडी, पुलिस द्वारा प्रदान की जाने वाली सुरक्षा के अंतर्गत होता है जबकि ज्यूडिशियल कस्टडी में गिरफ्तार व्यक्ति न्यायाधीश की सुरक्षा के अंतर्गत होता है.
8. पुलिस कस्टडी किसी भी अपराध जैसे हत्या,लूट, अपहरण, धमकी, चोरी इत्यादि के लिए की जाती है जबकि ज्यूडिशियल कस्टडी को पुलिस कस्टडी वाले अपराधों के अलावा कोर्ट की अवहेलना, जमानत ख़ारिज होने जैसे केसों में लागू किया जाता है.
ऊपर दिए गए अंतरों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पुलिस कस्टडी और ज्यूडिशियल कस्टडी दोनों का उदेश्य एक ही है
7. पुलिस कस्टडी, पुलिस द्वारा प्रदान की जाने वाली सुरक्षा के अंतर्गत होता है जबकि ज्यूडिशियल कस्टडी में गिरफ्तार व्यक्ति न्यायाधीश की सुरक्षा के अंतर्गत होता है.
8. पुलिस कस्टडी किसी भी अपराध जैसे हत्या,लूट, अपहरण, धमकी, चोरी इत्यादि के लिए की जाती है जबकि ज्यूडिशियल कस्टडी को पुलिस कस्टडी वाले अपराधों के अलावा कोर्ट की अवहेलना, जमानत ख़ारिज होने जैसे केसों में लागू किया जाता है.
ऊपर दिए गए अंतरों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पुलिस कस्टडी और ज्यूडिशियल कस्टडी दोनों का उदेश्य एक ही है
- #6
- पुलिस कस्टडी तब शुरू होती है जब पुलिस अधिकारी
किसी संदिग्ध व्यक्ति को गिरफ्तार कर लेता है जबकि जुडिशल कस्टडी तब शुरू
होती है जब न्यायाधीश आरोपी को पुलिस कस्टडी से जेल भेज देता है। पुलिस
कस्टडी की अवधि 24 घंटे की होती है। 24 घंटे के अंदर पुलिस को किसी
कोर्ट के समक्ष आरोपी को पेश करना होता है। लेकिन जुडिशल कस्टडी की कोई तय
समयसीमा नहीं होती। जब तक मामला चलता रहे या संदिग्ध आरोपी जमानत पर रिहा न
हो जाए, जुडिशल कस्टडी चलती रहती है।
- अगर पुलिस किसी व्यक्ति के खिलाफ चार्जशीट दाखिल
कर देती है तो फिर उस व्यक्ति को पुलिस कस्टडी में नहीं रखा जा सकता है। अगर
किसी व्यक्ति की जमानत खारिज भी हो जाती है तो उसको पुलिस हिरासत में नहीं
दिया जा सकता है।
- किसी भी अपराध जैसे हत्या, लूटपाट, अपहरण, चोरी, धमकी आदि के मामले में पुलिस
कस्टडी होती है जबकि कोर्ट की अवहेलना और अन्य मामलों में जुडिशल कस्टडी होती
है।
- #7
- रिमांड-------
- कानूनी जानकार बताते हैं कि किसी मामले में की
गई गिरफ्तारी के बाद जांच एजेंसी पूछताछ के लिए आरोपी को रिमांड पर ले सकती
है। आरोपी को गिरफ्तार कर अदालत में पेशी के बाद 14 दिनों तक पूछताछ के लिए
रिमांड पर लिया जा सकता है। हालांकि जांच एजेंसी को अदालत को बताना होता है
कि किस कारण रिमांड चाहिए। इसके लिए उसे अदालत के सामने तथ्य पेश करने होते
हैं और अदालत जब जांच एजेंसी की दलीलों से संतुष्ट होती है, तभी आरोपी को रिमांड पर भेजा
जाता है।
- #8
- दोबारा रिमांड
-------
- पुलिस रिमांड पर लिए जाने के बाद अगर आरोपी को
न्यायिक हिरासत में भेज दिया जाए और दोबारा जांच में कोई नया तथ्य सामने आ
जाए और आरोपी से दोबारा पूछताछ की जरूरत हो तो आरोपी को दोबारा रिमांड पर
लिया जा सकता है लेकिन यह सब गिरफ्तारी के 14 दिनों के भीतर ही हो सकता है, उसके बाद नहीं। अगर गिरफ्तारी
के 14 दिनों बाद जांच एजेंसी को कोई
पूछताछ करनी है तो वह अदालत की स्वीकृति मिलने के बाद आरोपी से जेल में
पूछताछ कर सकती है।
- #9
- कब मिलेगी जमानत-------
- पुलिस रिमांड के बाद आरोपी को जब तक जमानत न
मिले, उसे न्यायिक हिरासत में रखने
का प्रावधान है। चार्जशीट दाखिल होने तक आरोपी की न्यायिक हिरासत 14 -14 दिनों के लिए बढ़ाई जाती है, जबकि चार्जशीट दाखिल होने के
बाद न्यायिक हिरासत की अवधि मुकदमे की तारीख के हिसाब से बढ़ाई जाती है।
कानूनी जानकार ने बताया कि सीआरपीसी की धारा-167 (2) के तहत समय पर चार्जशीट दाखिल
न किए जाने पर टेक्निकल ग्राउंड पर जमानत दिए जाने का प्रावधान है।
- अगर आरोपी के खिलाफ ऐसा मामला दर्ज हो, जिसमें 10 साल कैद से कम सजा का
प्रावधान है तो टेक्निकल ग्राउंड पर आरोपी को जमानत दिए जाने का प्रावधान है, बशर्ते जांच एजेंसी ने आरोपी
की गिरफ्तारी के 60 दिनों के भीतर चार्जशीट दाखिल
नहीं की हो।
- 10 साल कैद या उससे ज्यादा सजा
वाले मामले में अगर गिरफ्तारी के 90 दिनों के भीतर आरोपी के खिलाफ
चार्जशीट दाखिल नहीं की जाती, तो जमानत मिल जाती है।
- वहीं मkSका मामले में गिरफ्तारी के 30 दिनों तक पुलिस रिमांड पर लिए
जाने का प्रावधान है। ऐसे मामले में अगर आरोपी के खिलाफ दर्ज केस में 10 साल से कम सजा का प्रावधान है
तो चार्जशीट दाखिल करने के लिए 90 दिनों का समय होता है। इस
अवधि में चार्जशीट नहीं होने पर आरोपी को जमानत मिल जाती है।
- 10 साल से ज्यादा सजा वाले मामले
में 180 दिनों तक चार्जशीट दाखिल नहीं
होने पर जमानत दिए जाने का प्रावधान है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
Please do not enter any spam link in the comment box.